बीत चली निशि अन्धकार की, विदा-घड़ी जब आई।
नव-आलोक लिये प्राची में, फूट पड़ी अरुणाई॥
नभ के पथ पर दिनकर का रथ, बढ़ता आता प्रतिपल।
दर्शन पाकर लगे विहँसने, कमलों के दल के दल॥
मिट्टी का लघु दीप, उठा लौ का मस्तक, अति हर्षित।
कर प्रणाम भगवान भानु को, त्वरित हुआ निर्वापित॥
देखा यह सब सूर्यदेव ने, होकर परम प्रभावित।
प्रश्न किया, दीपक की आत्मा को करके सम्बोधित॥
मेरे पीछे से दीपक ने निज दायित्व निभाया।
उसके इस कर्त्तव्य-प्रेम ने, मुझको मुग्ध बनाया॥
किया आज अर्जित उसने जगतीतल में यश भारी।
दें उसको वरदान, यही थी, इच्छा प्रबल हमारी॥
दीपक की अक्षय आलोक-पुंज आत्मा ने सुन कर।
दिया विनय युत निर्विकार शुचि, सरल भाव से उत्तर॥
‘‘देव! न कोई पुरस्कार है जग में इससे बढ़कर।
पालन करना कर्त्तव्यों का रह-रह कर निशि-वासर॥
दीपक ने दायित्व निभा कर पूरा फ़र्ज़ किया है।
छोटा-सा यह दीप प्रभो! फिर अंश आप ही का है’’॥
सुन कर यह उत्तर दिनकर का रोम-रोम हर्षाया।
मन में हो संतुष्ट गगन में रथ को अग्र बढ़ाया॥