Last modified on 1 मई 2017, at 13:29

कर दिया मना / महेश सन्तोषी

तुमने क्या अपनी यादों
तक से कर दिया आने को मना?
बहुत दिन हुए, हमारी आँख से कोई
आँसू नहीं बना।

बहुत दिन हुए तुम्हारी यादों में पलकों को पसीजे,
कुछ कुम्हलाये हुए सपने आँसुओं से बिना सींचे,
किधर गयीं वे परछाइयाँ? जो दूर तक आयीं हमारे पीछे,
वो सब तुम्हारे ही साये थे
जो थे हमारे सामने, आगे, पीछे।

कल तक हम थकते नहीं थे
जिसे बांहों में कसे,
अब शायद हमें जीना पड़ेगा उसकी
परछाइयों के बिना।
बहुत दिन हुए हमारी...

पास से न सही,
फासलों पर भी नहीं दिखते तुम,
कहाँ देखें तुम्हें? अब कहीं नहीं दिखते तुम।
हार कर बैठ गयीं आँखें
सभी सरहदों पर,
सांसों की सरहदों पर भी तो नहीं दिखते तुम।

हम उभर नहीं पायेंगे
फिर डूब कर अस्ताचल पर,
देखना हम कहीं डूब न जाएँ
तुम्हें देखे बिना।
बहुत दिन हुए हमारी...