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कलकत्ता - 1 / संगीता गुप्ता

 
भीड़ में
घिरे हुए आदमी को
दबे पांव
आहिस्ता से
हाथ थाम
अलग कर दिया तुमने

और
साथ चलते रहे
कदम - दर - कदम
मील- दर - मील
एक छोर से
दूसरे छोर तक

अंतिम मोड़ पर पहूँच
अचानक
चुपचाप
चले गये तुम
कहा
अब जाओ
तुम्हें जो देना था दिया