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कलम और कुदाली / रामदरश मिश्र

न जाने कब से हाथ में कलम है
वह काग़ज़ पर लिख रही है-
ऋतुएँ, पेड़, फूल, चिड़िया, नदी, सरोवर
और मनुष्यों की जीवन-छवियाँ तो
उतारती ही रहती है
पता नहीं कहाँ तक पहुँचती है इसकी आवाज़
और कितने गहरे

आज न जाने क्यों वह कुदाली याद आ गई
जो किशोरावस्था में
मेरे हाथों में आती-जाती रहती थी
वह खेतों की सूखी परतें तोड़ती थी
और तपने देती थी मिट्टी को
बारिश का जल पीकर अघाने के लिए
फिर खेत में हल गहरी रेखाएँ बनाते थे
जिसमें फसलों की कथा लिखी जाती थी
बीजों के द्वारा
सावन-भादों में, माघ-फागुन में
हरियाली उमड़ उठती थीं
बहार आ जाती थी विविध रंगों में फूलों की
दिगंतों तक आभा का वितान तन जाता था
जो स्पंदित होता रहता था हवाओं में
फूल-फूल पर झरती रहती थीं
चिड़ियों के पंखों की छायाएँ
फूल धीरे-धीरे अन्न केदाने बनने लगते थे
और खेतों में गूँजने लगता था जीवन-संगीत
गाँव की खाली आँखों में
दीप्त होने लगती थी समृद्धि की चमक
और उसके कंठ से फूट पड़ती थी
कभी कजली
कभी होली
कितना जिया है उस परिदृश्य को मैंने
वही परिदृश्य
कलम के द्वारा उतरता रहता है काग़ज़ पर
किन्तु वह जीवन था
यह उसकी छाया है।
-14.10.2014