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कलम में खून / बाल गंगाधर 'बागी'

मैं लिखता हूँ तो कई बार रोता हूँ
जब भी अछूत जिन्दगी को जीता हूँ
दिमाग की नसों में घायल खून दौड़ता है
जिसे अपने बाग़ी जख्मों से सींचता हूँ।
नफरतों की आग में मेरे लोग जलते रहे
अब जाति की जड़ी वो जंजीरें उखाड़ता हूँ
शोले से जलते पिंजड़ों में कैद रहकर
मैं सदियों से तड़पता समाज देखता हूँ
स्याही ही जगह आंसू जब कलम में भरता हूँ
बग़ावत की कलम से इतिहास को लिखता हूँ