कलम मेरी थक गई
अब दर्द लिखते लिखते
थक गया हो वैद्य जैसै
मर्ज लिखते लिखते
क्यूँ मेरी आँखें उसी के
सामने आकर झुकी
क्यूँ मेरी सांसेंं उसी के
सामने आकर रुकी
जल उठी अब साँस
आह-ए-सर्द लिखते लिखते
कलम मेरी थक गयी
अब दर्द लिखते लिखते
प्यास पीड़ा दर्द उसके
जाने से मुझको मिला
टूटता जाने न क्यूँ है
दर्द का ये काफ़िला
खो गई मंजिल कि
राह-ए-गर्द दिखते दिखते
कलम मेरी थक गयी
अब दर्द लिखते लिखते
लेखनी करने लगी है
आजकल विद्रोह मुझसे
छूटता जाने न क्यूँ हैं
किन्तु मन का मोह मुझसे
ना चुका पाया मैं उसका
कर्ज बिकते बिकते
कलम मेरी थक गई
अब दर्द लिखते लिखते