संस्थापित हो आइ विजय घट,
मार्कण्डेयपुराण-प्रमाणित
देवासुर संग्राम कथाकेँ
स्मरण करथु पुनि भारतवासी
जखन देवगण पर छल संकट,
बुझि पड़ैत अछि ताही युद्धक
पुनरावृत्तिक क्षण आयल अछि।
महिषासुर त्रैलोक्य विजय कय
इन्द्रादिक वृन्दारकगणकेँ
यज्ञ-भागसँ वंचित कयलक।
थाकल देवक पौरुष
इन्द्रक कुलिश निरर्थक,
रुद्रक प्रखर त्रिशूल
भेल छल भोथ जाहि क्षण,
विष्णुक चक्र सुदर्शन
घूर्णित मात्र होइत छल,
यम-कुबेर सभ छोड़ि पड़यला जखन महारण,
सर्वदेव सम्मिलित शक्तिएँ
धधकल क्रोधानलक ज्वालसँ
आविर्भूता भेली चण्डिका,
तखन असुर
विध्वंसक मुखमे गेल सवंशे।
महिषासुरक वंशधर
पुनि अवतीर्ण भेल अछि,
देवक जीवन-पथ फेरो संकीर्ण भेल अछि,
रक्तबीज केर रक्तक बिन्दु विकीर्ण भेल अछि,
शान्तिक पथ जग भरिक कण्टकाकीर्ण भेल अछि,
आइ देशकेँ पड़ल प्रयोजन-
आविर्भाव पुनः हो शक्तिक,
सुगठित सैन्यव्यूह-संयोजन,
देशक प्रति निश्छल अनुरक्तिक।
नव उत्साह-सिन्धुमे ज्वारि उमड़ि आयल अछि,
दीपित यौवन देखि
शत्रु दल घबड़ायल अछि।
जागि गेल अछि चण्डिकाक पुनि रक्त-पिपासा,
जागि गेल अछि बलिदानीक मनक अभिलाषा,
ई थिक सत्य-
न शिव कखनहुँ बर्बरता चाहथि,
रक्त-रंजिता धरा मुदा उर्वरता चाहथि,
मुण्डमालिनीकेँ चाही नव-मुण्डक माला,
असुर दलक संहार करक हित क्रान्तिक ज्वाला।
‘इत्थं यदा यदा बाधा’ क प्रतिज्ञा मोने
रहती कोना चण्डिका तखन कहू अनठौने।
लैत शान्ति केर नाम भ्रान्तिमय युद्धक वर्जन
करत न किन्नहु देश, करथि बलिदानी गर्जन
सीमित सहनक शक्ति तथा अरिदल अछि उत्कट
दृढ़ सकल्प पुनः संस्थापित करब बिजयघट।