नव कलिका तुम कब विकसी थीं,
इसका मुझको ज्ञान नहीं।
हुई समर्पित श्रीचरणों पर,
कब इसका कुछ ध्यान नहीं॥
हृदय-संगिनी सरल मधुरता-
में देखा अभिमान नहीं।
सच है गुण, धन, यौवन-मद का,
दुनियाँ में सम्मान नहीं॥
इसी हेतु सब श्रेष्ठ गुणों से,
पूरित तुमको अपनाया।
नव कलिका जब तुमको देखा,
तभी पूर्ण विकसित पाया॥
नन्दन कानन में सुरभित-
होने की तुमको चाह नहीं।
हृदय वेधकर हृदय-स्थल तक,
जाने को है दाह नहीं॥
मंत्र-मुग्ध से जग-जन होवें,
इसकी कुछ परवाह नहीं।
इन पवित्र मुसकानों में है,
छिपी हुई वह आह! नहीं॥
प्रेममयी इस अखिल-विश्व को,
अचल प्रेम से अपनाना।
यदि मिल जावें युगल चरण वह,
तुम उन पर बलि हो जाना॥