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कलि-कथा दोहा / अमरेन्द्र

नै पुछलेॅ केकरौ करोॅ-की यारी रोॅ भाव
कलियुग मेँ चढ़लोॅ यहाँ, बहिन-बहू रोॅ दाव।

सौ टाका रोॅ नौकरी, ओकरौ लुग सब फेल
कलियुग रोॅ कलिकथा विकट, के समझेॅ जिनखेल।

प्राण धरै पैसाहे लेॅ, पैस्है खातिर देह
जेकरा सम्पत जोॅन रँ, वै सेँ ओन्हे नेह।

सूर्य समैलै गंग मेँ, कण्टाही छै रात
कलियुग रोॅ करतूत ई, साधू पूछै जात।

सन्यासी धन लेॅ मरै, गीता बाँचै चोर
करिया सूरज लै फिरै, कलियुग रोॅ ई भोर।

पीपल, पाकड़, बोॅर नै, नै तुलसी रोॅ हास
कलियुग केरोॅ काल ई, कानै नीम-परास।

गंगा रोॅ छाती फटै, यमुना आँखी लोर
कलियुग-विष केॅ घोंटतें, पानी हरा कचोर।

धन गेलै तेॅ धरम हँसै, केन्होॅ समय कसाय
कलियुग हाथें मार खाय, सतयुग केरी माय

आँखी पर पट्टी रखी, सीलेॅ अपनोॅ ठोर
भाखन नीती रोॅ करै, खोजै यहाँ इंजोर।

पूत बसै परदेश मेँ, मैयो रोॅ अरमान
डीहोॅ पर कलियुग बसै, ऐंगन लगै मशान।

बैरी पर झूला लगै, बबुरी-जड़ पर जोॅल
कलियुग खोजै आक सेँ, पीपर केरोॅ फोॅल।

बकरध्वज आरो कोयलो, रंग-रूप मेँ एक
ऐत्हैं ही मधुमास रोॅ, उपजै भेद अनेक।

शहरोॅ के कुहराम मेँ, मन सेँ हुलकै गाँव
माय रोॅ अँचरा तर जना, चिलका फेकै पाँव।

गइये खाय नै गू यहाँ, सुरजो आगिन खाय
ई कलियुग रोॅ फेर मेँ, नद्दी नहर समाय।

धूप, जेठ-बैशाख रोॅ, कन्हौं-कहूँ नै छाँव
आरू मुसाफिर सब यहाँ, जेकरोॅ कोय नै गाँव।

जैतें-जैतें देह मेँ, उलटी जाय पँचमेर
माहुर सन-तन-मन करै, ई कलियुग रोॅ फेर।

भूत लगै नै भूत छै, अपने छाया भूत
आन पूत रोॅ पूत छै, अपने पूत कपूत।

फाँसी तेॅ फाँसी छेकै, खारे होय छै लोर
बान्हन सुथरी के रहेॅ या रेशम रोॅ डोर।

मन-मन सेँ बैरी बनै, ऊपर-ऊपर मेल
कलियुग चाहै इक करौं-पानी आरो तेल।

काया कंचन-काम सन-मान आरू सम्मान
सबरोॅ तेॅ ओरान छै, एकरे नै ओरान।

रोगी-रोगी मुँह लगै, देहोॅ मेँ नै जान
ठोरोॅ पर घूसा बसै, मुट्ठी पर मुस्कान।

वेद लगै गाली जकाँ, गाली-वेदन समान
ई देखी नै द्वापरे, कलियुग तक हैरान।

कलियुग काल कराल छै, कुटिल पुजैलोॅ जाय
पर्वत पर के सिंह पर, चढ़ी शनी अगराय।

दही कहीं छै पोरलोॅ कन्तरि कहीं सोन्हाय
अनसोॅ नै लागै सुनी, बैल्हैं बैल बियाय।

विद्या रोॅ अर्थी जहाँ, छै विद्या रोॅ मौज
कलियुग नाँचै छै, लेलेॅ अपनोॅ फौज।

छल-बल-धन रोॅ जोर पर, खोजै शिक्षक ज्ञान
दीपंकर श्रीज्ञान रोॅ, पानी मेँ सम्मान।

अजब-अजूबा दृश्य छै कलियुग रोॅ बर्ताव
बैठी मुस्कै औंगुठा, घावे दबावै घाव।

जे जत्तेॅ साधु दिखै ओत्तै कपटी-चोर
कलियुग केरोॅ जोर सें, दूधो हरा कचोर।

रौन करै शहरे-शहर प्यादा, फरजी-मीर
गाँमोॅ में धूनी करै, साधु-सन्त-फकीर।

ई कलियुगिया मुनि छेकै जहाँ धरै छै गोड़
की पोखर आ पोखरा गांगो हुवै कदौड़।

आगिन-खाई रेत मँ ढाढ़ोॅ जरै छै कोय
कोय सोना रोॅ बोरी मेँ हीरा-मोती ढोय।

टुकड़ा भर कपड़ा लेली की कलियुग रोॅ छंद
सारंगी पर भरतरी कानै गोपी चंद।

जाति-धरम रोॅ पाठ केॅ बाँच नुनु रे बाँच
आगिन जखनी लागतौ के सहतौ ई आँच।

बात-बात मेँ दोस्ती, बात-बात मँ घात
रात्है मेँ जो दिन दिखै, दिखै दुपहरिया रात।

ओकरे हाथें फूल छै, जेकि शूल मसूल
आरो अपने कारणें, हाथी-माथा धूल।

एकरोॅ कुछ परवाय नैं, जों दिल पर छै चोट
तैहियो होलै लाभ नै भारी यहेॅ कचोट।

शीषम-सखुआ-चंदनो-अनकट-साल-गंभार
दू फाँकोॅ मेँ सब हुवै, पड़थैं धार कुठार।

बात-बात रोॅ बात पर गाँव मेँ हुवै फसाद
बूढ़ोॅ बाबू-माय रोॅ कौनें देतै समाद

तिरछोॅ छै तनलोॅ जहाँ, भाला सम्मुख ठीक
की करतै ठाड़ोॅ वहाँ, माथा पर कोॅ टीक।

कलियुग रोॅ सेवा करै युग ई दासमदास
ओकरै लेॅ झूम्मर यहाँ आरो खड़ा उपास।

जेलकटुआ कहलेॅ फुरै, सब केॅ ई पगुराय
सन्यासी रोॅ नाम छै, नारि-हरण मेँ आय।

नारि-रास में लिप्त जे, छेड़ै नारि-विमर्ष
देह दिखावै मेँ दिखै, कलियुग रोॅ उत्कर्ष।

कलियुग केरोॅ की कहौं, गतिये बड़ी विचित्र
पोथी धरमोॅ रोॅ रहै, वहु मेँ नंगा चित्र।

जिनगी ऋण नाँखी लगै, दुख मिललोॅ छै सूद
कलियुग मेँ हाही केरोॅ खाली बन्दर-कूद।

अगम कुआँ छै कुंभ नै, झग्गड़ नाय उघैन
वै पर डाली के गेलै अमरित ठियां कुनैन?

खावै-पीयै देश रोॅ मोॅन बसै परदेश
कलियुगिया कलियुग केरोॅ, सतयुग पर दै ढेस।

की कलियुग सतयुग-समय, केकरोॅ कहौं अन्हेर
करम-करम सेँ ही बनै, करम-करम रोॅ फेर।

युग पलटलिनया खैलकै, रात कोॅ दिन्हैं वीद
आतंकी केॅ आयकल बोलै लोग शहीद।

आँखी-आँखी सेँ सुनै, कान भले छै बंद
घुंघरू-कंगना काठ छै, बाजै बाजूबंद।

सदभावोॅ-सदलीक लेॅ होलोॅ छै ई तंत
पढ़लोॅ-लिखलोॅ घोकतै-नादिर छेलै संत।

राजनीति कलिकाल रोॅ-तिनतसिया रोॅ फेर
बिन्डोबोॅ रॉे बीच मेँ जे पढ़लै ऊ ढेर।

कलियुग वहीं दिखाय छै, जहाँ आँख रोॅ लोर
शासक-पंडित लेॅ बनेॅ-मदिरा-मांस रोॅ झोर।

चिठियो कोय नै भेजतै, नै लेतै संवाद
अमरेन्दर रोॅ याद तेॅ-परदेशी रोॅ याद।