देहरी की सीमाएँ भूलकर
सब मर्यादाएँ तोड़कर
नील गगन में
आजाद पंछी-सा
उड़ने का मैंने सोचा है।
नदी की शीतल मधुर सौम्य
धारा पर नंगे पाँव
चलने का मैंने सोचा है।
मासूम-सी कल्पनाओं में
अपनी उजली सूरत पर
कमल खिलते हुए देखा है।
धवल चाँदनी-सा खुद को
इन स्याह रातों को
उज्ज्वल करते हुए देखा है।