कहाँ गई वह सरल, सौम्य, मधुरिम, अप्रतिम, अल्हड़ बाला,
सुघड़, बुद्धि से प्रखर, तनिक जिज्ञासु, लिए यौवन आभा।
मेरे उर मेँ दग्ध अभी तक, सतत प्रेम की है ज्वाला,
जैसे घट मेँ तड़प रही हो, बरसों की रक्खी हाला।
ढूँढा कहाँ नहीं उसको, वन उपवन मेँ बागानों मेँ,
खेतों में खलिहानोँ मेँ, झुरमुट की पुष्पलताओं मेँ।
गली मुहल्लों मेँ, घर में, आँगन मेँ और चौबारों मेँ,
मन्दिर मेँ, विद्यालय में, मस्जिद में और गुरुद्वारों मेँ।
मन की "आशा" अभी मिलन की क्षीण नहीं होने दूँगा,
कहने को कुछ शब्द नहीं, पर चाह नहीं मरने दूँगा।
कितने भी होँ भाव हृदय में, मुखमण्डल पर शान्त रहे,
नयन प्रेम की भाषा बन, अधरों पर भार न आने देँ।
ज्ञात नहीं क्या बातें होँगी, जब उनके सम्मुख होँगे,
अपलक उन्हें निहार, तृप्त नयनों को या होने देँगे।
भले हृदय में आज इसे लेकर गहरा स्पंदन हो,
निश्छल मन से किन्तु जभी वह मिलें, सिर्फ़ अभिनन्दन हो।