Last modified on 8 फ़रवरी 2014, at 16:08

कल्पना / उमा अर्पिता

बिल्लौरी काँच की
खनखनाहट-सी
तुम्हारी हँसी, जब
मेरी पलकों पर
अंगड़ाई लेने लगती है, तब
अपनेपन की मादक गंध
हमारे बीच
आकर ठहर जाती है!
इस गंध को
अपनी-अपनी साँसों में
सहेजते हुए
हम--
बुनने लगते हैं
सुखद भविष्य की कल्पना
और
हमारी आँखों में
खिल उठती है
गुलाब की छोटी-सी बगिया।