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कल्पना / दीपाली अग्रवाल

 वहां लोग कहीं भी जा सकेंगे
किसी हवा के समान,
सरहदों का अस्तित्व नहीं होगा
मील के पत्थरों का भी नहीं।
एक ही होगा समूचे विश्व का नाम,
बहुत सोचने के बाद लगा कि
पृथ्वी रखा जाना चाहिए वह नाम,
पृथ्वी पर धर्म से कोई प्रेम नहीं होगा,
वहां प्रेम ही होगा धर्म
कभी कभी लगता है
कितनी कल्पना में रहते हैं कवि
फिर भी,
साथ तो रखने ही चाहिए कुछ स्वप्न
जो दिन की थकन के बाद
काम आते हैं,
पृथ्वी की कल्पना के लिए।