होकर साकार हृदय वन में,
करती है नित्य नवल नर्तन।
नतमस्तक सृष्टि विनय करती,
सुर-नर-मुनि करते अभिनन्दन॥
हर पराशक्ति का विश्लेषण,
कर सकता मात्र अनन्त गगन।
अम्बर चिरकालिक व्यापक है,
सबकी लीला से अवगत है।
पर यह निश्चय है सर्वप्रथम,
है हुआ कल्पना का उद्गम।
उपरान्त काम का उदय हुआ,
दोनों का पावन विलय हुआ।
विधि में उदार कल्पना बसी,
तब विश्वमोहिनी सृष्टि हँसी।
जल थल सबका निर्माण हुआ,
जीवन में केन्द्रित प्राण हुआ।
सारी आकृतियों का उद्भव,
कल्पना मात्र से है सम्भव।
काल्पनिक शक्तियों से उपजे,
दैविक सचराचर जड़ चेतन।
नतमस्तक सृष्टि विनय करती,
सुर-नर-मुनि करते अभिनन्दन॥
प्रिय दृश्य भुजाओं में भरकर,
धरती पर झुका हुआ अम्बर।
निश्चित यह चित्र अनोखा है,
लेकिन नयनों का धोखा है।
यह कभी नहीं है हो सकता,
कैसे भू पर नभ सो सकता?
दोनों का पृथक-पृथक लय है,
इसलिए जगत मङ्गलमय है।
कल्पना सभी में पूर्ण विलय,
लेकिन प्रस्पर्श नहीं सम्भव।
यह तो सर्वथा लुभाती है,
जीवन रङ्गीन बनाती है।
क्षण में असङ्ख्य सपने सजते,
मन में चित्रित होकर नचते।
कल्पना काम को दर्शाती,
जाग्रत रहकर जीवन दर्शन।
नतमस्तक सृष्टि विनय करती,
सुर-नर-मुनि करते अभिनन्दन॥
प्रेमिल, पवित्र प्रस्पर्श प्रिये,
आलोकित सुन्दर दर्श प्रिये।
कज्जल-सी काली घनी लटें,
मद मस्तानी तन्द्रिल पलकें।
दृग में दर्शित दुर्लभ दर्शन,
स्वछन्द रमण का आमन्त्रण।
उभरे वक्षस्थल, कटिप्रदेश,
कमनीय सुशोभित हैं विशेष।
श्वासों में मलयज की सुगन्ध,
सुरभित कर देती अङ्ग-अङ्ग।
सुन्दर श्रीमुख की कोमलता,
कामुक गौराङ्ग खूब खिलता।
गुञ्जन व्याकुल मधुकरियों सी,
दीपित होती है परियों सी।
झीने परिधानों में सज्जित,
लोलुप अधीर हो रहा मदन।
नतमस्तक सृष्टि विनय करती,
सुर-नर-मुनि करते अभिनन्दन॥
अन्तर में चित्रित रूप सुघर,
रसमय हो उठा शुष्क निर्झर।
मदमाती मोहक छवि न्यारी,
उर में भड़काती चिङ्गारी।
सुमनों का ज्यों सुरभित पराग,
लवलीन भ्रमर का मधुर राग।
प्रतिपल आकर्षित करता है,
हृत में मृदु सिहरन भरता है।
मस्तानी मीठी प्यास लिये,
सम्पूर्ण मिलन की आस लिये।
खोजता फिरूँ बन यायावर,
जीवन के अनजाने पथ पर।
इक बार प्रिये बस आ जाओ!
निज प्रेम सुधारस बरसाओ!
छक कर मधुरिम रसपान करूँ,
हो शान्त हृदय की मृदु तड़पन।
नतमस्तक सृष्टि विनय करती,
सुर-नर-मुनि करते अभिनन्दन॥
याचना एक स्वीकार करो,
मञ्जुलमय अङ्गीकार करो।
तन में रसवन्ती मृदुल तपन,
मधुमिलन हेतु लालायित मन।
प्रिय स्वर्णिम किरणों के रथ पर,
कोमल आलिङ्गन में बँधकर।
प्रेमिल बाँहों में खोने दो,
सम्पूर्ण समर्पित होने दो।
पीकर पवित्र मधुमय मृदु जल,
शीतल हो अन्तर्निहित अनल।
घुलकर आपस में जीवन कण,
निर्मित हो एक नवीन सृजन।
संसृति मुस्काती रहे सदा,
नव पौध उगाती रहे सदा।
अनुचर पर फेरो दयादृष्टि,
अर्पित कर दो निज अन्तर्मन।
नतमस्तक सृष्टि विनय करती,
सुर-नर-मुनि करते अभिनदंन॥
पाकर अभिसार मदन बहका,
परिजात पुष्प-सा तन महका।
नस नस में विद्युत-सी तरङ्ग,
भरती थी मन में मृदु उमङ्ग।
चखकर अधरों से अधरामृत,
तन-मन में काम हुआ जाग्रत।
अवगुण्ठित होकर आपस में,
खो गये युगल यौवन रस में।
प्रारम्भ हुआ सम्पूर्ण मिलन,
सानन्दित प्रेमिल सङ्घर्षण।
सिन्दूरी किरणों की लाली,
मुस्काकर नेह दृष्टि डाली।
भुजबन्ध प्रणय का शिथिल हुआ,
सन्तुष्टि हँसी मन मृदुल हुआ।
कब रैन गयी सूरज विहँसा,
अनभिज्ञ सलज्जित था तन मन।
नतमस्तक सृष्टि विनय करती,
सुर-नर-मुनि करते अभिनन्दन॥
तुमसा निश्छल मनमीत मिला,
मुझ जैसा प्रस्तर भी पिघला।
मैं धन्य हुआ तुमसे मिलकर,
आनन्दित पुष्पों-सा खिलकर।
यौवन धन सरस अनन्त रहे,
जीवन भर हरित वसन्त रहे।
मोहक पराग कण अल्प न हों,
जब तक यह कायाकल्प न हो।
छन छन कर विखरे नव सुगन्ध,
विहँसें तन के प्रत्येक रन्ध्र।
सर्वदा विलसती रहो प्रिये!
प्राणों में बसती रहो प्रिये!
पुष्पित जीवनपर्यन्त रहो,
काल्पनिक शक्ति का अन्त न हो।
मेरा क्या? यदि मिट भी जाऊँ,
तुमको हो प्राप्त अमर जीवन।
नतमस्तक सृष्टि विनय करती,
सुर-नर-मुनि करते अभिनन्दन॥
बस मधुर कल्पना के कारण,
फलता है सर्व जगज्जीवन।
सर्वत्र कल्पना की प्रविष्टि,
पल्लवित हुयी सम्पूर्ण सृष्टि।
जग में जो कुछ होता दर्शित,
नैसर्गिक या मानव निर्मित।
विस्तृत या लघु सब रचनाएँ,
होती हैं प्रथम कल्पनाएँ।
जन जन के अन्तः में जागृत,
यौवना चिरन्तन से पुष्पित।
अन्तर के हर उत्पन्न भाव,
हैं कलित कल्पना के प्रभाव।
कल्पना काम से मिलती है,
तब कीर्ति जनित हो खिलती है।
क्षण क्षण में नवल सर्जन करते,
कल्पना काम का मृदु विलयन।
नतमस्तक सृष्टि विनय करती,
सुर-नर-मुनि करते अभिनन्दन॥
होकर साकार हृदय वन में,
करती है नित्य नवल नर्तन।
नतमस्तक सृष्टि विनय करती,
सुर-नर-मुनि करते अभिनन्दन॥