कल तलक गाँव था
प्रेम था, चाव था
हर बसर आज तो इक शहर हो गया
आदमी आदमी को ही खाने लगा
हर बसर ही सरापा हो गया
अब न चौपाल की ही वे गप्पें रहीं
भाईचारा मिटा, बुझ गयी रौशनी
एक ऐसा अँधेरा है बरपा यहाँ
कोयला बन गयी कामिनी चाँदनी
अब न बरगद ही, जो गाँव को छाँव दे
ठाँव उसका कँटीली डगर हो गया