जब भी कभी
मन चाहता है
कविताओं की नदियों में डूबती-उतरती
गोते लगाऊँ
पहाड़ों की ढलान पर
गाती हुई उतरूँ
जटंगी के खेतों में
पीली-फ्रॉक पहने
छुप जाऊँ
और दादा से कहूँ —
ढूँढ़ो मुझे ।
पके जामुन से रंग लेकर
जब बादल पहाड़ों से
सहिया जोड़ने चलें
तो उन्हें गले मिलते देखूँ ।
पर कैसे करूँ
मैं पूरी अपनी चाहना ?
कविताओं वाली नदी
सूखने लगी है
गीतों के पहाड़
उजाड़ हैं
जटंगी के खेतों में
हिण्डालको की माइंस खुदी हैं ।
सूख गए हैं पोखरे
बादल पहाड़ों से
आँख चुरा रहे हैं
और जंगल से गुज़रती हवा
गुनगुनाना गुदगुदाना भूल गई है ।
बस, फुसफसाती हुई
न जाने क्या कहती है
कि मन अन्देशे से भरे
दह में डूबता उतरता है।
और कविताओं की नदियों में
डूबने की इच्छा
बन्दूक की बटों
और बूटों के नीचे
कराहती रहती है
दिन-रात ।