एक
मैं चाहता हूँ जब काव्य-पाठ के लिए मँच पर बुलाया जाऊँ
तो अपनी उन कविताओं को सुनाऊँ जिन्हें बरसों से लिख रहा हूँ
और जो शायद अब तक शर्मिन्दगी की हद तक अधूरी हैं
मैं चाहता हूँ जब मैं कविता पढ़ूँ कोई बीच में उठे और मुझे टोक दे कि क्या बकवास पढ़ रहा हूँ जिसका न कोई ओर है और न कोई छोर
मैं चाहता हूँ जब मैं कविता के सबसे कारुणिक प्रसँग वाली पँक्तियाँ पढ़ूँ तो किसी की पेट में गुदगुदी पड़ जाए और वह हँसता हुआ दोहरा हो जाए
और जब हास्यास्पद प्रसँग बयान करती पँक्तियाँ पढ़ूँ तो कोई सभा में दहाड़े मार रोना शुरू कर दे
मैं चाहता हूँ जब मैं कविता पढ़ूँ तो कोई श्रोता पँक्ति से उठकर मेरी खिल्ली उड़ाए
मैं चाहता हूँ उन अधूरी कविताओं पर, जो शर्मिन्दगी की हद तक अधूरी हैं, किसी के होंठ कुछ कहने को हिलें लेकिन कोई शब्द न निकले
बल्कि विचलन में वह अपनी कुर्सी से उठे और काव्य-पाठ के दौरान ही सभा छोड़ कर बाहर चला जाए ।
दो
मैं चाहता हूँ जब कविता पाठ के लिए मँच पर जाऊँ
तो कोई हास्यास्पद मुद्रा न अख़्तियार करते हुए
बिना किसी ग़ैरज़रूरी भूमिका के सीधे कविता शुरू कर दूँ
मैं चाहता हूँ कविता में आई चीटियाँ मेरे माथे पर रेंगती हुई मेरे बालों के झँखाड़ में घुस जाएँ
और हरे टिड्डे मेरे कन्धों पर मुन्किर-नकीर की जगह तैनात हो जाएँ
मैं चाहता हूँ जब मैं कविता पढ़ूँ तो कविता में आया चान्द मेरे चेहरे की तरह पीला पड़ जाए
और रात मेरी आँखों की तरह सूनी और काली पड़ जाए
मैं चाहता हूँ जब मैं कविता पढ़ूँ तो कविता में बजती राइफ़ल की आवाज़
सभा में आतँक पैदा कर दे
और कविता में आई घास
सभा की ज़मीन पर
दरी-सी बिछ कर श्रोताओं के तलुवों में चुभ जाए
मैं चाहता हूँ कविता में आई रेत
श्रोताओं की आँखों में भर कर किरकिराए
और दृश्य को कई बार पोंछ कर साफ़ कर दे
मैं चाहता हूँ कविता में आया लहू मेरी आँखों से टपक कर
मुझे अन्धा कर दे
और फिर कोई श्रोता अफना कर उठे
और मेरी जगह
अपनी आवाज़, अपने शब्दों में कविता पूरी करे ।