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कविता / अहिल्या मिश्र

कविते तू गंगा बन
बह मेरे मन में।
नव विहान का वर
दे मेरे जीवन में

मैं साधक तुम साधना मेरी
अर्ध्य में जीवन अर्पण मेरी
निष्ठा का बल लेखनी मेरी
सत्यव्रत मसि भरती है मेरी

क्रांति गीत उद्घोषित
कर मेरे आंगन में
कविते तू गंगा बन
बह मेरे मन में।

मन निर्द्वंद्व हुआ है अब तो
विहंगम दृष्टि मिला है अब तो
ऊँच-नीच का भेद मिटा है अब तो
शाश्वत गान सुना है अब तो
समानता का मूल्य भाषित
कर जीवन गगन में
कविते तू गंगा बन
बह मेरे मन में।

पलकों की बूंद बहुत पिया हमने
दर्द का विहार बहुत किया हमने
जर्द चेहरे से बहुत ज़िया हमने
नकाब में छुपा देखा चेहरा हमने
पुण्य पथ प्रशस्त कर
मेरे गुलशन में
कविते तू गंगा बन
बह मेरे मन में।