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कविता / केशव

कविता
एक अँधेरी तँग सुरँग से गुजरकर
पहुँचती है मेरे पास
बार-बार जन्म देती है
उजाले को
अपना खरोंचोंभरा मर्म
खोल-खोल दिखाती है

जैसे कहती है
देखो
लौट आयी हूँ
अपना-सा मुँह लिये
चाहने वालों के बीच से
किसी ने न पूछी बात
दुलराया तक नहीं
कि उन्हीं के शिशु
लिये गर्भ में
घूम आयी एक छोर से
दूसरे तक

सभी ने गर्भ के शिशु को
पहचानने से
कर दिया इनकार
इसलिए भटक-भटक कर
लौट आयी हूँ
तु्म्हारे पास.