Last modified on 4 जुलाई 2010, at 18:09

कविता / नवनीत पाण्डे

अथाह नीले में
चुपचाप
टप्प से गिरी एक नन्हीं सी कंकरी
बनाती
एक के बाद एक कई वृत्त
होती अथाह
चुपचाप