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कविता / पाब्लो नेरूदा / प्रतिभा उपाध्याय

और गुज़र गई वह उम्र.... कविता
मुझे खोजने आई। नहीं पता मुझे
कहाँ से आई -- शीत से या नदी से
नहीं पता कैसे और कब
नहीं, नहीं थीं वे आवाज़ें
नहीं थे शब्द, न ही थी ख़ामोशी
लेकिन बुला रही थी मुझे एक सड़क से
रात के छोर से
उतावली से सबके बीच में से
हिंसक आग के बीच से
या फिर लौटते हुए एकाकी
उसका कोई चेहरा न था
और उसने मुझे छू लियाI

नहीं जानता था मैँ कि क्या कहूँ
कोई नहीं जानता था मेरा चेहरा
नाम लेकर पुकारने के लिए
आँखों से अन्धा था मैं
और किसी ने वार कर दिया मेरी आत्मा पर
ज्वर या विस्मृत उड़ान लिए
चला जा रहा था मैं अकेला
उस आग की गूढ़ लिपि समझते हुए
और लिख डाली मैंने पहली बेकरार पंक्ति
बेकरार, अर्थविहीन, एकदम बकवास
पूरी जानकारी दी उसकी, जिसके बारे में कुछ नहीं जानता
और जल्दी ही देखा मैंने स्वर्ग
ज़ुदा और खुला हुआ,
सितारे,
कम्पित फ़सलें,
छिद्रित छाया,
जो छलनी हुई थी
तीरों से, अग्नि और पुष्पों से
वक्र रात, ब्रह्माण्ड I
और मैं, बहुत छोटा प्राणी
शून्यता के नशे में
तारों सा झिलमिलाता
समानता की ओर
रहस्यमयी छवि की ओर
उठाता रहा दुख,
नरक का
लगाया चक्कर मैंने, सितारों के साथ
मेरा दिल फट पड़ा हवा मेँ II

मूल स्पेनिश से अनुवाद : प्रतिभा उपाध्याय