कविता आती है ...
बाधा, विघ्न, कुण्ठा से मुक्त कर –
जीवन दे जाती है।
कविता आती है ।
दिन के थके-मान्दे, शलथ –
सोने को होते हैं,
चिन्ताएँ सोने नहीं देतीं ।
निज की, समाज की
देश की – विदेश की,
शासन-कुशासन की,
संस्कृति के गले मढ़े कुत्सित पाखण्डों की,
चिन्ताएँ सोने नहीं देतीं ।
दिन के थके-मान्दे, शलथ –
सोने को होते हैं,
कविता आ जाती है
अन्तस टटोल जाती है।
गुज़रे दिन की बातें,
पूरे-अधूरे काम, अछूते संकल्प,
मित्रों के आए पत्र – दिए गए उत्तर,
प्रियजनों की यादों के पुलकित क्षण,
एकाएक खो जाते हैं
गुज़रे हुए दिन में हुई हत्याओं की ख़बरें –
स्तब्ध कर जाती हैं ।
छा जाता है –
भ्रष्टाचार की जड़ से उत्पन्न आतंक ।
याद आती है – ब्लैक मार्केट की कथा –
लोग उसका अर्थ न जानते थे ।
कपड़ा, अनाज, नोन, तेल. दियासलाई –
माचिस की डिबिया नहीं – तीलियाँ
बिकती थीं ब्लैक में ।
राज आया अपनों का,
राज बना अपनों का,
वादे पर वादा, शर्मनाक हादसे,
मन कुरेदता है, हृदय कचोटता है,
क्या आदमी – आदमी न रहेगा ?
ख़ून के रिश्तों का भी अवमूल्यन ?
उभर आती है ... भाई-भतीजों की ग्लानि,
सम्पत्ति के लिए रिश्तों का हनन,
स्वार्थी क्रिया-कलाप ।
कठिन हो जाता है ... ख़ून के रिश्तों का जायजा ।
कल के कामों की सूची,
नींद समेट लेती है ।
कविता आ जाती है,
आँखें खोल जाती है,
अमराई के झरोखों से –
सुबह का सूरज दमकने लगता है,
कविता लिख जाती है ।
–
12 फ़रवरी 1989