दर्पण नहीं है वह
जब चाहा देख लिया
अपना चेहरा जा कर
फूल भी नहीं वह कोई
रँगो-बू में जिस की
डूबे ही रहो दिन-रात
कोई खिलौना भी नहीं
चाबी भरते ही चलने लगे
मन बहलाने की ख़ातिर
कविता एक चाकू है
गहरे तक धँसा
आत्मा में—
न मुमकिन रख पाना
जिस को
निकालना
मर जाना निश्चय ।
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20 अप्रैल 2009