Last modified on 13 अप्रैल 2018, at 16:46

कविता का जन्म / योगेन्द्र दत्त शर्मा

जब चांदनी में डूबकर
वह कल्पना आई धरा की दूब पर
तब उन्हीं भीगे क्षणों में
नीरस समय से ऊबकर
कविता बनी!

उस व्याध केशर से हुए आहत-विहत
उस क्रौंच के कंपित विरह से
फूट निकला गीत कवि के कंठ से
जब चुभ गई चुप-से हृदय में
वेदनाओं की अनी!
कविता बनी!

जब बादलों की पंखुड़ी को झनझनाती
लहलहाते खेत की
पगडंडियों के
पास से होकर गुजरती
मुक्त रस-सौरभ लुटा
पुरवा बही,

जब रह गई अनुभूति मन की
अनकही,
तब मेंह की दो बूंद टपकीं
गंध-छंदों में सनी!

अधमुंदे कुछ अधखुले
मादक नयन की कोर के छोटे झरोखे में
मचलता स्वप्न तरलायित हुआ जब
एक मोती
उस झरोखे से ढुलकने को
विवश, सायास लालायित हुआ जब
और पलकों पर ठिठककर रह गई
वह बूंद होकर अनमनी!
कविता बनी!

प्रकृति की झांकी मनोरम दृश्य
घाटी, घने जंगल,
खेत, नदियां, बाग, पर्वत,
गीत की लय पर थिरकते
झील-झरने
भित्तिचित्रों में सजाई अल्पना

सोचने को ये लगे जब विवश करने
सृजन को मजबूर करने
चेतना की धार पर
तैरी प्रकंपित कल्पना
तब क्षितिज के वक्ष पर
नम, मर्मप्लावित स्याहियों से
ऋचा रचने को
उठी नव लेखनी!
कविता बनी!

उस महाप्लावन के समय
सारा ख-मंडल कांपकर टूटा
प्रलय की भीषिका में
ढह गया जब
खंड-खंडों में बिखर
फिर सृष्टि के मधु-कल्प पर
उभरी हुई अभिव्यंजना
मन की मयूखी से निखर,
तब नई रचना के लिए
मन के हृदय के मौन में
फैली सृजन की सनसनी!
कविता बनी!
-मई, 1974