हो-न-हो कविता जनमती है यहीं पर
सुगबुगाहट हो रही धीमे सुरों में
तल अवनि का मृदु उमंगों से भरा है
कल्पना को कोष चिंतन का गया मिल
मेघ भी अनुकूल, मिट्टी उर्वरा है
हो-न-हो कुछ भी जनमता है यहीं पर
हो-न-हो कविता जनमती है यहीं पर
बीज जब डाला गया कोमल करों से
गुदगुदी-सी छा गयी ऋतु के वदन में
मौन क्रन्दन बीच कोई जन्म लेने-
जा रहा प्रज्ञा-पुरूष वाणी-भवन में
प्रेम का वरदान मिलता है यहीं पर
हो-न-हो कविता जनमती है यहीं पर
नेत्र कवि के अधखुले, आनन विभासित
कल्पना की डोर तारों से बँधी है
हो रही है बीन भावों की सुझंकृत
ताल-सुर समवेत है, अँगुली सधी है
आदि-कवि की साधना फलती यहीं पर
हो-न-हो कविता जनमती है यहीं पर
सृष्टि के सारे रहस्यों की लुनाई
कवि-करों से स्वतः खुलती जा रही है
प्रकृति-चित्रों के धुँधलकों की सुछाया
दिव्य शब्दों में पिघलती जा रही है
ब्रह्म कविता में समा जाता है यहीं पर
हो-न-हो कविता जनमती है यहीं पर