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कविता की ऋतू / अमरजीत कौंके

जब भी
कविता की रुत आई
तुम्हारी यादों के कितने मौसम
अपने साथ ले आई

मैं कविता नहीं
जैसे तुम्हें ही लिखता हूँ
मेरे नयनों
मेरे लहू में
तुम्हारा अजब सा सरूर तैरता है
अजीब सा ख़्याल
हैरान करने वाला
पता नहीं कहाँ से सूझता है

तुम धीरे से
मेरे पास आ बैठती
तुम्हारी नज़र
मेरी कविता का
एक-एक शब्द
किसी पारखी की तरह
टँकार कर देखती
मेरे नयनों में
तुम्हारा मुस्कुराता चेहरा आता
मेरे इर्द गिर्द शब्दों की
बरसात होती
और मैं किसी बच्चे की तरह
शब्दों को उठा उठा कर
उनको
कतारों में सजाता

कहीं भी हो चाहे
कितनी भी दूर
असीम अनंत दूरी पर

लेकिन कविता की ऋतू में
तुम हमेशा
मेरे पास होती।