कविता को बदलो मत / सुचेता मिश्र

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कुल्हाड़ी-सी

तमाम अमानवीय चमक के खिलाफ

खड़ी होना चाहे कविता।


तुम अपार करुणा की बात करते हो

कविता अपने भीतर

जलाये रखना चाहे आग

अकाल पीड़तों का शव-संस्कार कर

तुम लौट आ सकते हो

एक पवित्र संग्राम का

दृष्टांत तलाशने

मृत लोगों के घर तक भी

पहुँचना चाहे कविता।


अत्याचार तब्दील होता समाचार में

कभी भी छ्पता नहीं

मनुष्य का अपमान

कविता को बदलो मत

तुम्हारे अपमान को

एक शाश्वत नाम देने

लड़ना चाहे कविता।


जब रिलीफ कापी में लिखा जाए

मृत आदमी का नाम

और उसके भाग्य का चावल जाए

भव्य रसोई में

जब भाषण में सुनाई दे

कविता की नकल

फसल और पंक्तियों को बचाये रखने

जिस किसी विस्फोटक के सामने

खड़ी हो सकती है कविता।


कविता को बदलो मत

सारे दिग्विजय

सारे राज्याभिषेक के बाद भी

इतिहास में सिर्फ रह जाए

जो थोड़ी-सी कम जगह

वहाँ रहना चाहे कविता


कविता को बदलो मत।


अनुवादक : महेन्द्र शर्मा

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