Last modified on 13 जनवरी 2009, at 20:38

कविता मुझ में / रेखा चमोली

कविता
उन उदास दिनों में भी
उत्साहित करती है
जब गिर चुके होते हैं
पेड़ के सारे पत्ते
नंगा खड़ा पेड़
नीचे धूप तापती धरती

रंगीन बाज़ार महंगी वस्तुओं
अनावश्यक ख़रीददारी के बीच
ठकठकाती है
सम्वेदनाओं को
पलटकर दिखाती है
सड़क किनारे खेलते
नंग-धड़ंग बच्चे
और भीख मांगती माँएँ

बोझिल आँखें टूटते शरीर के
बावजूद कविता
जगाती है देर रात तक
भुलाती है दिन भर की
उथल-पुथल
फिर
छोटी-सी झपकी भी
कई घंटों की निष्क्रिय नींद के
बराबर होती है

पुराने तवे-सी हो चुकी मैं
जल्दी गर्म हो
नियंत्रण खो उठती हूँ
भावनाओं एवं स्थितियों पर
तो कभी पाले-सी
देर तक हो जाती हूँ उदासीन
ऎसे में कविता तुम
मन के किसी कोने में
धीरे-धीरे सुलगती रहती हो
बचाए रखती हो
रिश्तों की गर्माहट व मिठास
मुझे करती हो तैयार
उनका साथ देने को
जो अपनी लड़ाई में
अलग-थलग से खड़े हैं।