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कविता मेरे साथ / कल्पना पंत

जब भी मैं गुस्सा हुई
जब भी तुमसे बहस हुई
जब मैंने प्रेम किया
जब जब मैं टूटी
जब भी दुनिया की नाइंसफियों से मैं दुखी हुई
जब भी मैंने किसी को टूटते देखा
जब भी मैंने किसी को अपने अधिकार के लिए लड़ते देखा
जब भी किसी को नीव की ईट बन, कंगूरों के नीचे विलुप्त होते देखा
जब भी मैं किसी लड़ाई में शामिल हुई
मैंने कविता भी जरूर लिखी
पर सिर नहीं झुकाया
मैंने दिन को दिन और रात को रात-रात कहा
और सुबह होने की प्रतीक्षा की़।