धरती चाक की तरह घूमती है। 
ज़िन्दगी को प्याले की तरह 
गढ़ता है समय । 
धूप में सुखाता है । 
दुख को पीते हैं हम 
चुपचाप । 
शोरगुल में मौज-मस्ती का जाम । 
प्याला  छलकता है । 
कुछ दुख और कुछ सुख 
आत्मा का सफ़ेद मेज़पोश 
भिगो देते हैं । 
कल समय धो डालेगा 
सूखे हुए धब्बों  को । 
कुछ हल्के निशान 
फिर भी बचे रहेंगे । 
स्मृतियाँ 
अद्भुत ढँग से 
हमें आने वाली दुनिया तक 
लेकर जाएँगी ।
(दिसम्बर, 1997)