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कविता - 2 / योगेश शर्मा

मैंने देखा है
पौष की भयावह ठंडी रात में,
एक बीड़ी को;
जूतों का काम करते हुए,
और एक सन्तरी पऊए को
बिस्तर का।

मैंने तापा है सड़क किनारे
जलती बुझती आग को
जो जलाई गयी थी
आस पास का कूड़ा और
रात कटने की उम्मीद इकट्ठा करके।

वक़्त आदमी को किस तरह बरतता है?
सब सभ्यताएँ,
टकराती हैं एक ही सवाल से...
उस सवाल की गूँज को
महसूस करती है आत्मा
किन्तु,
परहेज करता है आदमी।

हजारों लाखों का ज्ञान...
बिकता है केवल बीस रुपये में,
सांझ की रोटी के शगल में।

जो भी हो,
गरीबी की आग में
अधिक गर्मी होती है।