Last modified on 7 अक्टूबर 2019, at 15:28

कविता - 7 / योगेश शर्मा

 तुम्हारा मुझसे अलग होना
ऐसा है मानो
किसी दीवार से बेतरतीब रंग उतर गये हों,
और एक बच्चे ने उसमें
कोई पेंटिग खोज ली हो।

मैं तुम्हारे जाने के बाद एक दीवार बन गया,
जिस पर बेतरतीब स्मृतियाँ बंधी हुई थी,
अब वहाँ कोई स्मृति शेष नही
सिर्फ अवशेष हैं।

तमाम सभ्यताओं ने कुछ न कुछ खोजा है...
मेरी सभ्यता ने
तर्क को जरूरत के हिसाब से
मोड़ने की तरकीबें ईजाद की हैं।

मैं अपने हिसाब से विकसित हुआ
मैंने सब काम किए
लेकिन कभी उस हद तक कुछ नही किया,
कि या तो बर्बाद हो जाऊँ
या संवर जाँऊ।