कल तक उसकी कविता आग उगलती थी,
लेकिन आज पेट की आग की खातिर
वह चुल्हे की आग सुलगा रहा है।
मोड़ पर उसने एक छोटी सी
चाय की दुकान खोल ली है
जहाँ रोज चाय की भाप के साथ खौलकर
उसके विचार हवा में मिल जाते हैं।
लेकिन आज भी कुछ पत्र-पत्रिकाओं की
कतरन को एवं पुरानी डायरी के पन्नों को
रखा है ताखे पर इस उम्मीद के साथ
कि एक दिन हवा के तेज झोंके में
उड़कर ऊपर,बहुत ऊपर.....
चारों तरफ फैलकर चिल्लाएंगे।
तभी उसकी पत्नी ताखे पर रखे
उन्हीं कतरनों पर दो बच्चों को
दो-दो रूपये का बिस्किट दे देती है।
दो-दो रूपये कविता के दाम नहीं !!
वे तो बिस्किट के दाम हैं।
कविता का तो कोई मूल्य है ही नहीं
रद्दी कागज हैं ! सिर्फ रद्दी !!
तभी एक बच्चा बिस्किट खाकर
"व्यवस्था" को मोड़कर फेंक देता है
सड़क किनारे कचरे पर,
दूसरा बच्चा भी फेंक देता है
"मशाल" उसी के बगल में।
वह दूर से बहुत गौर से
देखता रहता है एकटक
शायद "मशाल " से छोटी ही सही
चिंगारी फूटे और मुड़ी-तुड़ी "व्यवस्था"
को जला दे।
बहुत देर के बाद भी उससे
चिंगारी का एक कतरा नहीं निकलता।
अब उसे यकीन हो गया
कविता की आग से चाय नहीं बनती,
बल्कि उसके लिए जलाना पड़ता है कागज
और साथ ही कवि और कविता को भी
तिल-तिल कर।