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कवि का वक्तव्‍य / प्रेमशंकर शुक्ल

मेरे पहले कविता-संग्रह ’कुछ आकाश’ में भी जल सीरीज की कुछ कविताएँ हैं। उन्‍हीं कविताओं की भाव-भूमि रही होगी कि मैंने इधर के सात-आठ सालों में पानी को अपनी कविता का विषय बनाया और पानी के सहारे कविता की बोली-बानी में बहता रहता रहा।

    भोपाल ताल इतना प्रसिद्ध है कि वह कहावत की जु़बान पर लहराता है, इस ताल के किनारे मैं पिछले बीसेक वर्षों से आ रहा हूँ। भोपाल ताल का एक नाम बड़ी झील भी है। यह इतनी आत्‍मीय संज्ञा है कि इसके सामने स्‍त्रीलिंग या पुल्लिंग का सम्‍बोधन बह जाता है। चाहे आप भोपाल ताल कहें या बड़ी झील ज़रूरी यह है कि प्‍यास नहीं मरनी चाहिए और जीवन की सुन्‍दरता का आल-बाल हरा-भरा रहना चाहिए। बड़ी झील का ताना-बाना प्रकृति-सौन्‍दर्य और मनुष्‍य की स्‍वेद-गंगा से मिल कर बना है। बड़ी झील में महाकवि कालिदास के परम-मित्र राजा भोज का सुयश लहराता है -- विद्यानुरागी और प्रजा-पालक राजा भोज।
    बड़ी झील ने पहली मुलाक़ात में ही मेरा मन मोह लिया और इस रागात्‍मक रिश्‍ते ने मेरी कविता की ज़मींन को बहुत सींचा-सँवारा और पानीदार किया जिसके लिए मैं बड़ी झील के प्रति हृदय से आभारी हूँ ।
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    मैं जानता हूँ मेरी ज़ुबान जब भी मैली होगी उसे धोकर पानी ही कहने लायक बनाएगा, मेरा कण्‍ठ जब भी बेसुरा होगा अपनी उदात्त्‍ा तरलता से पानी ही उसे सुर में लाएगा और होंठ जब ठस हो रहे होंगे बोली-बानी का पानी ही इन्‍हें नम और मुलायम बनाएगा। पानी की ये कविताएँ यदि अपना तरल पाठ प्रस्‍तुत कर सकीं हैं तो मैं विश्‍वास कर सकता हूँ कि ‘कहने-बोलने' का मेरा अभ्‍यास ठीक चल रहा है ।

    सौभाग्‍य से यह वर्ष (2010) हमारे पूर्वज कवियों अज्ञेय, शमशेर, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल और फै़ज़ का शताब्‍दी वर्ष है। मैं अपनी इन परम्‍परा विभूतियों को कृतज्ञतापूर्वक झील एक नाव है की कविताएँ सादर समर्पित करता हूँ ।