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कवि की मदद / अरुण देव

हिन्दी का महाकवि अचानक बीमार पड़ा
इलाज़ के लिए आर्थिक मदद माँगनी पड़ी
सार्वजनिक किया गया उसकी पत्नी के नाम का खाता
यही कमाई थी उसकी जन्म भर की

कितना ताक़तवर दिखता था अपनी कविताओं में हमारा यह कवि
राजनीतिक सत्ता की खुली आलोचना करता हुआ
धार्मिक रूढ़ियों पर घन चोट करता रहा

रहती थी कुछ कवियों की नज़र उसपर हमेशा
कि अब गिरा कि तब गिरा, लो यह गिरा, गिरा, गिरा
यहाँ-वहाँ वहाँ वहाँ

कच्ची-पक्की नौकरियों से जैसे-तैसे काट ली ज़िन्दगी
कुछ किताबें छपीं, अनुवाद छपे
कुछ पुरस्कार भी मिलें
लाखों के
जिसके लिए उसे सहनी पड़ी असह्य कुकुर झौं-झौं

ये फिर भी कितने कम थे
कितने दिन चल सकता था इससे भला जीवन

कुछ ओहदेदार लोगों के किताबों की लिखी उसने समीक्षाएँ
कि ख़ुश रहें
गाहे-बगाहे काम आ जाएँ

पाठकों से क्या होना था
वे पता नहीं कौन थे, कहाँ रहते थे ?

जिसे लिखने में उसे सालों लगे और जो
सभ्यता में अब तक अर्जित का सार था
उससे भी क्या होता इलाज के लिए ।

घर पर कर्ज़ छोड़ कर मरा जब
उसकी अन्तिम यात्रा में लोग भी कम ही थे ।