Last modified on 15 जनवरी 2012, at 00:21

कवि गगन विहारी / अनिल जनविजय

कैसे नरपिशाच हैं कवि गगन विहारी ।
लाल रक्त की प्यास हैं कवि गगन विहारी ।।

राम नाम वे लुटा रहे, लूट सके तो लूट ।
हिन्दू जन का विश्वास हैं कवि गगन विहारी ।।

धर्म की ध्वजा उठाए, रक्तपात में लीन ।
जटाधारी की आस हैं कवि गगन विहारी ।।

साम्प्रदायिक विद्वेष बना है संस्कृति का सार ।
तिमिर में प्रकाश हैं कवि गगन विहारी ।।

महाकाल के साथ वे घूमें, ले हिंसा उन्माद ।
जीवन का उच्छवास हैं कवि गगन विहारी ।।

हिन्दू मुस्लिम एकता की बातें बड़ी बड़ी ।
पर मुस्लिमों की लाश हैं कवि गगन विहारी ।।

धर्म ही अब देश हो गया, विधर्मी देशद्रोही ।
भारत का संत्रास हैं कवि गगन विहारी ।।

(2003)