Last modified on 22 जून 2019, at 11:49

कवि तू महान / अरविन्द पासवान

न शिल्प
न छंद
न बिंब
न भाषा
का ज्ञान

आया है बनने
कवि तू महान

बोले डाँटकर
कविवर महान

न भाव
न भूमि
न भक्ति
न भान

चला है भटकने
ऐसे तू नादान

परम भाव से
पितपिताए हुए
बोले सुमुख से
कविवर महान

पहले बढ़ा ले
हर्फ व हिज्जे का
तू अपना ज्ञान
तब थोड़ा होगा साहित्य का भान

यह वह भूमि है
जिसमें जनमे हैं
दास कबीर, सूर,
तुलसी महान

इस मिट्टी में ही
पैदा हुए हैं
मीर, गालिब,
फैज व फिराक

जिसने गोता लगाया
इस आग के दरिया में
खाक भी होकर हुआ है जिनान

जिसने भेद दिया है
कलुष भेद तम को
हुआ है क्षितिज पर महान

ऐसी परम्परा का
है तुझको ज्ञान

कवि कर्म इतना
नहीं है आसान

उठा अपनी गठरी
बचा ले तू जान |

सहज भाव से
अनुरोध किया मैंने
सुनो बात मेरी
हे कविवर महान

शिल्प व छंद
बिंब व भाषा
भाव व भूमि
भक्ति व भान
हर्फ व हिज्जे
समझने से पहले ही
सहजै समझ आता
दुखिया का दुख
और
उनका दुख गान


इच्छा न आशा
अभिलाषा न मेरी
कि होऊँ कवि मैं महान


अगर हो सके तो
खुदा
जन की खिदमत में
मुझको बनाए एक अदना इंसान