Last modified on 31 अक्टूबर 2009, at 23:37

कवि लोग / अग्निशेखर

बरसों से भूखी हैं
कविताएँ
कवि लोग करवा रहे हैं
उनसे बंधुआ मज़दूरी
शोषण कर रहे हैं
भुक्खड़ कवि
और आलोचक सो रहे हैं
चालान की बहियों पर

फड़फड़ा रहे हैं ज़मीन पर पड़े
सूखे पतझड़ी पत्ते।
बाज़ार में
महंगे दामों पर भी उपलब्ध नहीं है
कविता की आदिम ख़ुराक
न उसकी प्यास के लिए
बची है मैल से कोई नदी