आज उसका सारा सामान
घर से चला गया
जैसे एक दिन वो छोड़ कर
चला गया था हम सब को
पर उसके जाने के बाद भी
उसकी चीजें चीखती थी कभी
हँसती थी कभी
और कभी सारी चीजें गले लिपट कर
मेरे फूट-फूट कर जार-जार रोती थी।
पलंग में लगा शीशा मेरे चेहरे के साथ
नुमाया करता था एक और चेहरा हमेशा।
लकड़ी की कुर्सी लकड़ी के ढाँचे से ज़्यादा
उसके आराम से पसरे होने की मुद्रा
में अधलेटी रहती थी
कभी यहाँ, कभी वहाँ
कभी सर्दियों की धूप में टैरेस पर
कभी गप्पें मारते मुझसे
किचन के दरवाजे पर।
टी वी के रिमोट पर
उसकी उँगलियों का स्पर्श
अभी भी चपलता से घूमता रहता है।
उसके बिना उसके कमरे का कूलर
कभी-कभी असहाय गुस्से में
गरम हवा फेंकने लगता है।
दही और मूली की चटनी से
अभी भी मेरी कटोरियाँ गमकती हैं।
जैसे जाती नहीं है गंध कपड़ों से सिगरेट की
उसी तरह उसकी कश्मीरी गंध गरम पशमीने
सी मेरी जिंदगी से लिपटी रहती है।
जीने खाने के लिए
उसने अपने देवदारु-चिनार
सेब और जाफरान छोड़े
यह झूठ है
वो तो महसूस था
उसे तो पता ही नहीं चला कि
कब सुर्ख सेब हरे हो गए
और जाफरान भगवा।
कब देवदारु-चिनार अपनी
ऊँचाई से कट छंट कर
संसद की कुर्सियों के पाए
और
बड़े नामों की नेमप्लेट बन गए।
कब सुफैद बर्फ ख़ाकी और मिलिट्री
के पील पाँव से टूटती दरकती रही।
आतंकवाद का काला कौवा
सबसे पहले कहाँ बोला
संसद में या सीमा पार
उसने तो सुना ही नहीं।
इस सबसे बेखबर
वो चश्में के ठंडे पानी में
बीयर की बोतलें ठंडी करता रहा
रफीक चाचा के यहाँ गोश्त उड़ाता रहा
पड़ोस की लड़की को ताकता, मुस्कुराता रहा।
वो तो मासूम था
कि ‘कश्मीर से कन्या कुमारी तक भारत एक है’
यह पाठ वह भूला ही नहीं।
वो तो मासूम था कि
अठारह साल में वोट देने
पर खुश हुआ
नाखून काले करवा कर
निश्चिंत हुआ
और सीने पर हाथ बांधे
रातों को बेखौफ सोता रहा।
नाज था उसे उन लोगों पर
जिसको उसने चुन कर भेजा था,
कि उन्हीं लोगों ने
उसे विस्थापन की दीवार
में चुन दिया, उसे दिल्ली बुलाया और मार दिया।
उस दिन से वह न हिला, न डुला,
न हँसा, न रोया
कभी सड़कों, कभी कैंपोंटीन टप्परों में भटकता रहा
इस देश में रहने के लिए ।
कभी ठेला लगाया, कभी अख़बार बेंचे
जीते रहने के लिए
जीने के लिए नहीं।
जब तक जिया
शर्मसार रहा
यही सोचता रहा
कि जो अपना हिमालय छोड़ेगा
वह इसी तरह
सफाचट मैदान में मारा जायेगा।