Last modified on 31 जनवरी 2009, at 21:39

कहते थे हे प्रिय! “स्खलित-अम्बरा मुग्ध-यौवना की जय हो / प्रेम नारायण 'पंकिल'


कहते थे हे प्रिय! “स्खलित-अम्बरा मुग्ध-यौवना की जय हो ।
अँगूरी चिबुक प्रशस्त भाल दृग अरूणिम अधर हास्यमय हो ।
वह गीत व्यर्थ जिसमें बहती अप्सरालोक की बात न हो ।
परिरंभण-पाश-बॅंधी तरूणी का धूमिल मुख जलजात न हो।
कहता हो प्रचुर प्रेम-सन्देशा विद्युत विलसित जलद चपल।
उठता हो केलि-विलास-दीप्त उद्दाम कामना-कोलाहल।
क्या वीतराग हो गये विकल” बावरिया बरसाने वाली।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥52॥