कहते ”उमड़ी परिरंभण की तृप्तिदा त्रिवेणी” प्राणेश्वर!
कह रहे “सॅंवारू उठो अंक ले स्निग्धा वेणी अपने कर।
चाहता ब्रह्म को त्याग प्रिये! तेरा मायामय मुख चूमूँ।
तेरी कजरारी पलकों में प्राणेश्वरि पुतली सम घूमूँ।
तेरी कोमल काया पर सखि शत-शत समाधियाँ बलिहारी।
उर्मिल प्रणयी दृगाम्बुपूरित सखि ”पंकिल“ आँखे रतनारी”।
बन कुलिश-कठोर न प्राण ! विकल बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥97॥