भाषा के घीमिल-गोबर में
तोड़ रहे वे,
नई कहन की, नई जलेबी ।
खोटमशीनों के जादू से
जनमत लूटा ।
गाड़ सदन की छाती पर
बहुमत का खूँटा ।
अहमसिद्धि के जलवे की कलई खुली हुई
मुद्राओं के ढोंग
दिखावे के जनसेवी ।
कुत्ते पाले,
अपने-अपने भक्त कहाए ।
बदबू मारें,
पाकसाफ़ - दूध के नहाए ।
चरमपन्थ की ओर दिशारेखा को मोड़ा
लोकतन्त्र की टाँग मरोड़ें
सिर्री - ऐबी ।
राजनीति हो या रचना
निर्बाध दलाली ।
छायाएँ दोनों के ऊपर
काली - काली ।
खुली छूट पाने, दर्पण ही तोड़े सारे
सच पर पर्दा डाल,
पुज रहे देवा - देवी ।
सबक़ काठ है,
सम्वेदन का पाठ पढ़ाएँ ।
रागद्वेषयुत मुर्गे स्वर के
रोज़ लड़ाएँ ।
बिनविचार की मूल्यदृष्टि का तर्क उछालें
घोर साम्प्रदायिक,
चीमड़ मक्कार फ़रेबी ।