कहाँ गए
वे लोग
इतने प्यार के,
पड़ गए
हम हाथ में
बटमार के।
मौत बैठी
मार करके कुण्डली
आस की
संझा न जाने
कब ढली
भेजता पाती न मौसम
हैं खुले पट
अभी तक दृग- द्वार के।
बन गई सुधियाँ सभी
रात रानी
याद आती
बात बरसों पुरानी
अब कहाँ दिन
मान के, मनुहार के।
गगन प्यासा
धूल धरती हो गई
हाय वह पुरवा
कहाँ पर सो गई
यशोधरा –सी
इस धरा को छोड़कर
सिद्धार्थ- से
बादल गए
इस बार के।