कहाँ नहीं है रिक्तता
मेरी दस उँगलियों के बीच
मेरी बन्द मुट्ठियों के भीतर?
कितना ही सघन सोचूँ
क्रम में सजा, आपूरित कर
कितना ही क्यों न करूँ
कितना ही क्यों न पाऊँ
छूट जाता है कुछ
गिनकर नापकर जाँचकर
कितना ही क्यों न भरूँ
घट जाता है कुछ
ख़ाली सिर्फ़ आसमान ही नहीं होता
हर जगह समाकर
पँजे फैलाकर
बैठी है रिक्तता
(जनवरी,1981)