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कहाँ से लाऊँ मैं / सुदर्शन रत्नाकर

घंटियों की आवाज़
मस्जिद की अजान
लहलहाते खेत
खुला आसमान
सावन की फुहारें
तीजों के गीत
त्रिजंन भरे आँगन
पींगों की ऊँची उड़ान
गिद्धे के बोल
पाँवों की थिरकन
कीकली का शोर
छटापओं की होड़
धुआंसी आँखों से, रोटी बनाती
चौके में बैठी थाली परोसती
बच्चों से घिरी माँ।
ठंडी हवाओं की छु्अन
वो रहटों का पानी
वो पीपल की घनी छाँव
अपने बचपन का गाँव
कहाँ से लाऊँ मैं
जो विकास की चकाचौंध में
कहीं खो गया है।
बंद कमरे की परिधि में
ए.सी की घुटन भरी हवा में
आर ओ के पानी में
डी जी के कानफोड़ू आवाज़ों में।
अब आँगन ही नहीं तो
त्रिंजन कहाँ होंगे
पेड़ नहीं तो झूले कहाँ होंगे
वेलिनटाइन डे के चाव में
वसंत-तीज विलीन हो गए हैं
टेबल पर माँ
पिज़्ज़ा और बर्गर परोसती है
अब न उसकी आँखें धुँआसती हैं
न ही वह प्यार उँडेलती है
अब हर कोई जी रहा है
अपने अपने हिस्से की ज़िंदगी
संवेदनहीनता के मुखौटे लगाए
हर क्षण विष के घूँट पी रहा है।