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कहाँ हो तुम / विजेन्द्र

मृत्यु का भय
ईश्‍वर के भय को सींचता रहता है
ओ मेरे कवि
प्रार्थनाएँ करते-करते सदियों के पंख
झड़ चुके हैं
ऋतुचक्रों पर फफूँद बैठी है
ईश्‍वर गरीबों की तरफ से
पत्थर दिल हो चुका है
उसने आँख, कान बंद कर लिए हैं
जब बरसती हैं स्वर्ण-मुद्राएँ
वहाँ वह कैद में खुश है
लेकिन हजारों-लाखों भूखे और तंगदस्त
उससे बहतर ज़िंदगी की उम्मीद किये
पुराना रथ खींच रहे हैं
जो षासन करता है
उसे ईष्वर का सहारा चाहिए
जिस से वह भूखों को
दबा के रख सके।
देखता हूँ डरे हुए, कमज़ोर असहाय लोगों की
ठण्डी आहों से निकलता धुँआँ
एक ऐसी गाढ़ी अंधेरी रात
जो सुबह की उम्मीद
खो चुकी है
कहाँ हो मेरे ईश्‍वर
कोहरा है इतना घना
अपने सामने के चेहरे भी
नहीं देख पाता।
क्रूर .....अत्याचारी दैत्य का जबड़ा
लगातार खुल रहा है
एक ऐसी आँधी
जो कभी खत्म नहीं होना चाहती
कहाँ हो तुम !

2007