भीगते हुए दिन के साथ
तुम अकेली हो सड़क के पार
पूरा उस पार तुम्हारे साथ है और
अपने पलटून पुल के साथ मेरा अगोचर अतीत भी वहाँ चुपचाप
अपनी परछाईं पर झुका,
जिसे अभी घटना बाक़ी है
रेत हो गई नदी में पानी की वापसी तक
उस पार सब कुछ जो इस ओर भी है फिर भी नहीं मेरे साथ
मकान इमारतें खिड़कियाँ दरवाज़े बाज़ार की हड़बड़ी
अपभ्रंश बोलियों में लज्जा के लिए अनुनय करते प्यासे कवि
बिजली के खंबों सहारे झुके हुए पेड़ थकी चौराहों की बत्तियाँ
गूगल के नक्शों में लगातार अपडेट होती मनुष्यों की बनाई घरेलू सीमाएँ
पते और उन तक पहुँचते रास्ते
बीच में अवसाद नदी उसमें गिरते नाले
मेरे कंधे पर टंगा सामान का बोझ भी मेरा नहीं
फिर भी कंधे दुखी और मैं झुका जा रहा हूँ
अपनी सिमटती परछाईं को जैसे जमीन से समेटते
नज़दीक आती दूरियों पर मुड़कर पीछे देखते,
कुछ लुढ़कर जाता मेरे हाथों से छिटक
पर मैं हँसते हुए बढ़ जाना चाहता हूँ वर्तमान का आश्चर्य छोड़,
महीना एक पर कहानियाँ कई इसकी
ज़ेबरा क्रॉसिंग पर घड़ी देखने का समय नहीं।