बहुत देर से समझ में आती है यह बात
कि शरीर के मायने नहीं कुछ खास
अगर उसमें एक ह्रदय धड़क ना रहा हो
बात आस्थाओं और धारणाओं की नहीं है
जो सोच हमें परम्परा देती है
उसका कत्ल करना होगा
और बिना अपराध बोध के मान लेना होगा
कि हम ऐसा सोच लेते हैं
सिर्फ इसीलिए पापी नहीं हो जाते
मात्र अपनी पत्नी के संग सोने वाले लोग
अगर बाहर किसी को भूखा मार देने को तैयार हैं
तो केवल इसी बात पर उन्हें
इमानदार नहीं कहा जा सकता
ये सोना और शरीर और शादी
चरित्र नहीं बनाते
वह जो इतने लोगो को बनाना चाह रहा
आदमी सा कुछ
उसे चरित्र कहते हैं
वह जैसा है सादा सा
उसे चरित्र कहते है
वह जैसा लिख पाता है
उसे इमानदार होना कहते हैं
वह जो निस्वार्थ चला आता है
इतनी दूर तक
उसे मनुष्य होना कहते हैं
प्रेम में साथ रहें ना रहें
लेकिन रचना में रह जाने वाले लोग ही
प्रेम में रह पाते हैं ।