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कहा करौं हरि बहुत खिझाई / सूरदास

कहा करौं हरि बहुत खिझाई ।
सहि न सकी, रिसहीं रिस भरि गई, बहुतै ढीठ कन्हाई ॥
मेरौ कह्यौ नैकु नहिं मानत, करत आपनी टेक ।
भोर होत उरहन लै आवतिं, ब्रज की बधू अनेक ॥
फिरत जहाँ-तहँ दुंद मचावत, घर न रहत छन एक ।
सूर स्याम त्रीभुवन कौ कर्ता जसुमति गहि निज टेक ॥

भावार्थ :-- (माता कहती हैं -) क्या करूँ , श्याम ने मुझे बहुत तंग कर लिया था, मै सहन नहीं कर सकी, बार बार क्रोध आने से मैं आवेश में आ गयी, यह कन्हैया बहुत ही ढीठ (हो गया) है । मेरा कहना यह तनिक भी नहीं मानता, अपनी हठ ही करता है और व्रज की अनेकों गोपियाँ सबेरा होते ही उलाहना लेकर आ जाती हैं । जहाँ-तहाँ यह धूम मचाता घूमता है, एक क्षण भी घर नहीं रहता । सूरदास जी कहते हैं कि श्यामसुन्दर त्रिभुवन के कर्ता हैं, किंतु आज तो (उन्हें बाँध रखने की) अपनी हठ यशोदा जी ने भी पकड़ ली है ।