कहा था ... याद है?
जमीं बड़ी कोमल
कि इसको ज़िल्द पहना चाहिए
वो क्षितिज ...
क्षिप्रा के पार
उसे जो चूमता-सा दिख रहा है शाम ढलते
कोई माशूक-सा लगता ...आवारा
कहो है सत्य कितना?
बराबरी की बात करते बाज़ुबां तुम
कसम से नाच उठते
... याद है?
न समझा ... नोंच लोगे लुंचे मांस
क्षितिज से भी निठुर तुम
नुचे गर्दन से बहते रक्त कत्थई
क्षिप्रा के ठंडे धार धोएंगे